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हिर॑ण्यनिर्णि॒गयो॑ अस्य॒ स्थूणा॒ वि भ्रा॑जते दि॒व्य१॒॑श्वाज॑नीव। भ॒द्रे क्षेत्रे॒ निमि॑ता॒ तिल्वि॑ले वा स॒नेम॒ मध्वो॒ अधि॑गर्त्यस्य ॥७॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

hiraṇyanirṇig ayo asya sthūṇā vi bhrājate divy aśvājanīva | bhadre kṣetre nimitā tilvile vā sanema madhvo adhigartyasya ||

पद पाठ

हिर॑ण्यऽनिर्निक्। अयः॑। अ॒स्य॒। स्थूणा॑। वि। भ्रा॒ज॒ते॒। दि॒वि। अ॒श्वाज॑नीऽइव। भ॒द्रे। क्षेत्रे॑। निऽमि॑ता। तिल्वि॑ले। वा॒। स॒नेम॑। मध्वः॑। अधि॑ऽगर्त्यस्य ॥७॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:62» मन्त्र:7 | अष्टक:4» अध्याय:3» वर्ग:31» मन्त्र:2 | मण्डल:5» अनुवाक:5» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रसङ्ग से विद्युद्विद्या विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - इस संसार में जो (हिरण्यनिर्णिक्) पृथिवी के सुवर्ण और अग्नि के तेज को अत्यन्त निश्चय करने और (अयः) जानेवाला (अस्य) इस राज्य और जगत् के मध्य में (दिवि) प्रकाश में (भद्रे) कल्याणकारक (तिल्विले) स्नेह के स्थान में (क्षेत्रे) निवास करते हैं जिस पुण्य कर्म्म में उसमें (वि, भ्राजते) विशेष प्रकाशित होता है और (अश्वाजनीव) बिजुली के सदृश (निमिता) अत्यन्त मापी अर्थात् जाँची गई (वा) अथवा (स्थूणा) खम्भे के सदृश दृढनीति विशेष प्रकाशित होती है उस और उसको (अधिगर्त्यस्य) अधिक सुन्दर गृह में हुए (मध्वः) मधुरादि पदार्थ के मध्य में हम लोग (सनेम) विभाग करें ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य श्रेष्ठ व्यवहार में विराजमान बिजुली आदि की विद्या को ग्रहण करते हुए गृह के कृत्य में यथावत् न्याय को करते हैं, विभाग कर और विभाग देकर कृत्यकृत्य होते हैं, वे नीतिवाले होते हैं ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः प्रसङ्गाद्विद्युद्विद्याविषयमाह ॥

अन्वय:

अत्र यो हिरण्यनिर्णिगयोऽस्या जगतो मध्ये दिवि भद्रे तिल्विले क्षेत्रे वि भ्राजते या अश्वाजनीव निमिता वा स्थूणा वि भ्राजते तं तां चाधिगर्त्यस्य मध्वो मध्ये वयं सनेम ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (हिरण्यनिर्णिक्) यः पृथिव्या हिरण्यमग्नेस्तेजश्च नितरां नेनेक्ति (अयः) योऽयते गच्छति सः (अस्य) राज्यस्य (स्थूणा) स्तम्भ इव दृढा नीतिः (वि) (भ्राजते) प्रकाशते (दिवि) प्रकाशे (अश्वाजनीव) विद्युदिव (भद्रे) कल्याणकरे (क्षेत्रे) क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन् पुण्ये कर्म्मणि तत्र (निमिता) नितरां मिता (तिल्विले) स्नेहस्थाने (वा) (सनेम) विभजेम (मध्वः) मधुरादिपदार्थस्य (अधिगर्त्यस्य) अधिकसुन्दरे गर्त्ते गृहे भवस्य ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या दिव्ये व्यवहारे विराजमानां विद्युदादिविद्यां गृहीतवन्तः सन्तो गृहकृत्ये यथावत् न्यायं कुर्वन्ति विभज्य विभागञ्च दत्त्वा कृतकृत्या भवन्ति त एव नीतिमन्तो भवन्ति ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे श्रेष्ठ व्यवहार करतात. विद्युत इत्यादी विद्या शिकून गृहकृत्याचे व्यवहार यथायोग्य पाळतात. पदार्थांची योग्य विभागणी करून कृतकृत्य होतात ती नीतिमान असतात. ॥ ७ ॥